उपन्यास >> सूखा पत्ता सूखा पत्ताअमरकान्त
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आजादी से पहले के पूर्वी उत्तरप्रदेश का कस्बाई परिवेश और इसका किशोर कथा-नायक कृष्ण-यहाँ असाधारण रूप में चित्रित हुए हैं...
Sukha Patta A - hindi Book - by Amarkant
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘सूखा पत्ता’ अमरकांत की ही नहीं, बल्कि पिछले बीस वर्षों में लिखे गये हिन्दी–उपन्यासों में भी एक महत्त्वपूर्ण रचना है। आजादी से पहले के पूर्वी उत्तरप्रदेश का कस्बाई परिवेश और इसका किशोर कथा-नायक कृष्ण-यहाँ असाधारण रूप में चित्रित हुए हैं। कृष्ण के मित्र मनमोहन के रूप में किशोरावस्था की मानसिक विकृतियों, कृष्णा के क्रान्तिकारी’ रुझान के बहाने अपरिपक्व युवा मानस की कमजोरियों और कृष्ण-उर्मिला-प्रेमकथा के सहारे समाज की मानव-विरोधी रूढ़ परम्पराओं पर प्रहार हुआ है। किशोर वय से युवावस्था में प्रवेश करते छात्र-जीवन की अनुभव-विविधता के बीच अनायास जुड़ गये कृष्ण-उर्मिला प्रसंग को लेखक ने जिस सूक्ष्मता और विस्तार से उकेरा है, उसकी ताजगी सहजता और साहगी हिन्दी कथा-साहित्य की बेजोड़ उपलब्धि है। इस प्रणय-गाथा की पवित्र और गहन आत्मीय सुगन्ध मन में कहीं गहरे पैठ जाती है; और साथ ही यह तकलीफ भी कि सामाजिक रूढ़ियों की दीवार आखिर कब तक दो युवा-हृदयों के बीच उठाई जाती रहेगी।
सूखा पत्ता
अमरकान्त
मः जुलाई 1925। जन्म-स्थानः ग्राम नगरा, जिला बलिया (उत्तर प्रदेश)। क्षाः 1941 में गवर्नमेण्ट हाई स्कूल, बलिया, से हाई स्कूल। कुछ समय तक गोरखपुर और इलाहाबाद में इण्टरमीडिएट की पढ़ाई, जो 1942 के स्वाधीनता-संग्राम में शामिल होने से अधूरी रह गयी, और अन्ततः 1946 में सतीशचन्द्र कालेज, बलिया से इण्टरमीडिएट किया। 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए.। 1948 में आगरा के दैनिक पत्र ‘सैनिक’ के सम्पादकीय विभाग में नौकरी। आगरा में ही प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल और कहानी-लेखन की शुरूआत। इसके बाद दैनिक ‘अमृत पत्रिका’ इलाहाबाद, ‘दैनिक भारत’ इलाहाबाद तथा मासिक पत्रिका’ इलाहाबाद, ‘दैनिक भारत’ इलाहाबाद तथा मासिक पत्रिका ‘कहानी’ इलाहाबाद के सम्पादकीय विभागों से सम्बद्ध। अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता (‘कहानी’ मासिक द्वारा आयोजित) में ‘डिप्टी कलक्टरी’ कहानी पुरस्कृत। सम्प्रति ‘मनोरमा’, इलाहाबाद, के सम्पादकीय विभाग से सम्बन्द्ध ।
प्रकाशित कृतियाँ ‘जिन्दगी और जोंक’, ‘देश के लोग’ ‘मौत का नगर’, ‘मित्र-मिलन और ‘कुहासा’ (कहानी-संग्रह) ‘सूखा पत्ता’ ‘आकाशपक्षी’ ‘काले-उजले दिन’ ‘सुखजीवी’, ‘बीच की दीवार’ ‘ग्राम सेविका’ (उपन्यास); ‘वानर-सेना’ (बाल उपन्यास)। ‘खूदीराम’ और ‘सुन्नर पाण्डे की पतोहू’ (उपन्यास) शीघ्र प्रकाश्य।
प्रकाशित कृतियाँ ‘जिन्दगी और जोंक’, ‘देश के लोग’ ‘मौत का नगर’, ‘मित्र-मिलन और ‘कुहासा’ (कहानी-संग्रह) ‘सूखा पत्ता’ ‘आकाशपक्षी’ ‘काले-उजले दिन’ ‘सुखजीवी’, ‘बीच की दीवार’ ‘ग्राम सेविका’ (उपन्यास); ‘वानर-सेना’ (बाल उपन्यास)। ‘खूदीराम’ और ‘सुन्नर पाण्डे की पतोहू’ (उपन्यास) शीघ्र प्रकाश्य।
आवरणचित्र
लक्ष्मण श्रेष्ठ (जन्मः 1939) की चित्रकृति। नेपाली-मूल के चित्रकार। बम्बई और नेपाल में रहते हैं। शिक्षा बम्बई के जे. स्कूल आफ आर्ट में हुई। फिर ‘एतेलिए- 17’, पेरिस और सेण्ट्रल स्कूल आफ आर्ट, लन्दन में। बम्बई में 1963 में पहली एकत्र प्रदर्शनी हुई थी। तब से लेकर अब तक बम्बई, नेपाल, बाल्टीमोर, सान फ्रांसिस्को (अमेरिका) और अन्य कई कलाकेन्द्रों में प्रदर्शनियाँ आयोजित हुई हैं। कई अन्तराष्ट्रीय समूह-प्रदर्शनियों में भागीदारी। कई पुरस्कार-सम्मान मिले हैं।
लक्ष्मण श्रेष्ठ अमूर्त रूपाकारों में काम करते हैं। रंग-गतियों और रंग-आभाओं को वह कुल चित्र-स्पेस में छितरा देते हैं। रंग-आभाओं में बिजली की-सी कौंध, बादलों में छिपे रंग-प्रकाश की-सी दीप्ति है।
उनका काम, राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय (नयी दिल्ली), निकल्सन म्यूजियम आफ कंटेम्परेरी आर्ट (बम्बई) और अन्य संग्रहों में है।
लक्ष्मण श्रेष्ठ अमूर्त रूपाकारों में काम करते हैं। रंग-गतियों और रंग-आभाओं को वह कुल चित्र-स्पेस में छितरा देते हैं। रंग-आभाओं में बिजली की-सी कौंध, बादलों में छिपे रंग-प्रकाश की-सी दीप्ति है।
उनका काम, राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय (नयी दिल्ली), निकल्सन म्यूजियम आफ कंटेम्परेरी आर्ट (बम्बई) और अन्य संग्रहों में है।
अपनी बात
यह मेरे एक मित्र की कहानी है। बीते दिनों के संस्मरणों से भी युक्त उनकी मोटी डायरी पढ़ने के बाद यह उपन्यास लिखने की इच्छा उत्पन्न हुई, जो शीघ्र ही इतनी तीव्र हो गयी कि मेरे दिमाग में स्वतः ही एक खाका उभरता गया और कुछ ही महीनों में मैंने इसे लिख लिया। नायक के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से इसको तीन भागों में बाँट दिया है। यद्यपि ये तीनों ही भाग अपने में लगभग स्वतन्त्र और पूर्ण होंगे। ऐसी रचनाओं में सबसे अधिक डर इसका होता है कि लेखक नायक के व्यक्तित्व पर हावी न हो जाय, इसलिए मैंने कल्पना का बहुत कम सहारा लिया। वस्तुतः घटनाओं को सजा भर दिया है-जो कुछ परिवर्तन हुआ वह भाषा और शैली में ही। कुछ अति साधारण घटनाओं को काटा जा सकता था, पर उससे सम्भवतः उपन्यास का उद्देश्य विफल हो जाता जो यह था कि नायक के मानसिक संघर्ष और उथल-पुथल को सही-सही उतारा जाय। पात्रों के नाम निस्सन्देह कल्पित हैं।
अन्त में मैं अपने मित्र के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ, जिन्होंने अपनी डायरी का उपयोग करने के मेरे आग्रह को अनिच्छा के बावजूद स्वीकार कर लिया। उन्हीं के अनुरोध पर मैं उन सबसे क्षमा माँग लेता हूँ, जिनके जीवन के कुछ चित्र उनकी अनुमति के बिना ही इस उपन्यास में प्रस्तुत कर दिये गये हैं।
अन्त में मैं अपने मित्र के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ, जिन्होंने अपनी डायरी का उपयोग करने के मेरे आग्रह को अनिच्छा के बावजूद स्वीकार कर लिया। उन्हीं के अनुरोध पर मैं उन सबसे क्षमा माँग लेता हूँ, जिनके जीवन के कुछ चित्र उनकी अनुमति के बिना ही इस उपन्यास में प्रस्तुत कर दिये गये हैं।
अमरकान्त
मनमोहन
एक
जब कभी अपने लड़कपन और स्कूली दिनों की बात सोचता हूँ तो सबसे पहले अपने चार दोस्तों और मननमोहन की याद आती है।
राजा बलि या बाल्मीकि के मान पर बसे हुए अपने इस कस्बे की स्थिति सन् ’43 में कुछ विचित्र ही थी। आज वहाँ कुछ तरक्की हुई है। वहाँ के छात्र और नवयुवक पैण्ट-कमीज पहनकर बुद्धिमान और आधुनिक नायक की व्यस्तता से झूम-झूमकर चलते हैं और अपने व्यक्तित्व के उत्थान के लिए लड़कियों का पीछा करना आवश्यक समझते हैं। किन्तु, तब ऐसे लोग गधे के सिर से सींग की तरह गायब थे।
उस समय हमारा शहर और जिला आज से कहीं अधिक पिछड़ा भावुक और अकड़ू था। वहाँ के लोग, विशेषकर छात्र और नवयुवक, शहरीपन, फैशन और सुन्दरता के प्रति अनोखी घृणा और सन्देह का भाव रखते थे। दोस्त के लिए जान देने के गुण की कद्र थी, लेकिन कोई फैशन परस्त या सुन्दर लड़का ऐसा कर सकेगा, इस पर सन्देह ही किया जाता। कम उम्र के सुन्दर लड़के आसानी से डरपोक और जनखे समझ लिये जाते, इसलिए अपने को लांछन और व्यंग्य से मुक्त रखने के लिए ऐसे लड़के भरकस नेकर न पहनते; कभी पहनते भी तो ऊपर से कमीज गिरा लेते। किसी में सहसा और सदाचरण हो, इसके लिए यह जरूरी था कि वह देहाती किस्म के कपड़े पहन, जूतों से दूर रहे, बालो, और बोलते समय अपनी आवाज को इस तरह खींचे कि वह शहर का और न किसी कस्बे का रहनेवाला, बल्कि जिले के भीतर-से-भीतरी लट्ठमार देहाती क्षेत्र का रहने वाला मालूम हो।
बहादुरी और मर्दानगी उनके सर्वोत्तम आभूषणों थे; और इसका सबसे बड़ा सबूत यह था कि साल-भर वे असंख्य दल और गुट बनाकर मार-पीट करते। लण्ठई फैशन की तरह फैल गयी थी। लण्ठ बनने की तमन्ना लगभल सबको होती, और ऐसे लोग अपनी उम्र, बुद्धि, शक्ति तथा अन्य सीमाओं के अनुरूप दलबन्दी और मारपीट करके अपने हृदय की प्यास बुझाया करते।
जुलाई में, बरसात प्रारम्भ होते ही, स्कूल-कालेज खुलते थे; और जिस तरह बरसात में किस्म-किस्म के जंगली घास-पौधे, कीड़े-मकौड़े और फरफतिंगे पैदा हो जाते हैं, उसी तरह स्कूल खुलने पर असंख्य दल बन जाते। पिछले वर्ष के झगड़े ही वैसे कम न थे; स्कूल खुलने पर वे ताजे हो जाते। इसके अलावा बहुत-से-नये झगड़े आरम्भ हो जाते। नाजुक लड़कों को लेकर बहुत-से-झगड़े ही, पर कोई अकड़कर चले या ऐठंकर बोल दे या हल्का-फुल्का मजाक कर दे तो वह भी यथेष्ट होता। दोनों ओर दल बन जाते, अकेले में घेरकर पीटने की कार्रवाइयाँ शुरु हो जातीं, किताबें छीन ली जातीं, अँगुलियाँ तोड़ दी जातीं, पैर बेकार कर दिये जाते। शत्रु परीक्षा दें या परिक्षा देकर आनन्दपूर्वक घर चले जायें, यह असहनीय था। इसलिए कोशिश यही रहती कि उनको घेरकर उनके दाहिने हाथ के अँगूठे तोड़ दिये जायें, जिससे वे परीक्षा दे ही न सकें। इस कार्य में असफल होने पर परीक्षा के अन्तिम दिन स्कूलों के फाटकों पर बड़े-बड़े गोल लाठी, हाकी-स्टिक, लकड़ी के चैलों, बेतों, लोहे की छड़ों आदि से लैस होकर एकत्रित हो जाते कि दुश्मनों के बाहर निकलने पर जमकर हो या उनके अंग-भंग कर दिये जायें।
उस समय मैं नवीं कक्षा में पहुँचा था। लड़कपन मेरा विस्मयजनक शान्ति से बीत गया था।
साँवला, खूबसूरत, चंचल, शर्मीला और खिलाड़ी-स्कूली तथा शहरी लण्ठों की बदतमीजियों और शरारतों से बचने के लिए मैं अधिकतर घर ही पर बना रहता, और खेल-कूद के नाम पर भाइयों से गाली-गलौज और मारपीट करके सन्तोष कर लेता। स्कूल जाता, घर आता और बस। मेरे आचरण के विरुद्ध किसी प्रकार का लांछन मुझे बरदाश्त नहीं था। इससे सम्भवतः लाभ हानि, दोनों हुए। लाभ यह कि जो समय मैं लेखने –कूदने में बिताता, उसमें पढ़ने-लिखने लगा, जिससे मेरी गणना तेज विद्यार्थियों में होने लगी; हानि यह कि सुन्दर और स्वस्थ शरीर से मैं वंचित रह गया। लगता है अपने छोटेपन की घुटन की क्षतिपूर्ण एक अन्य वस्तु से भी हुई।
मेरे पिताजी उपन्यास पढ़ने के शौकीन थे। ‘चलता पुस्तकालय’ के विशेष सदस्य होने के नाते प्रति सप्ताह उनके पास दो पुस्तकें पहुँचा दी जातीं। मैं उन पुस्तकों को चोरी-छिपे पढ़ता। बारह-तेरह से अठ्ठारह वर्ष की उम्र तक मैंने ढेरों उपन्यास पढ़ डाले, जिनमें कुछ तो बहुत ही अच्छे थे और कुछ बहुत घटिया। निस्सन्देह, वे अपने-अपने विशेष तरीके से समाज में व्याप्त अमानता, अन्याय, शोषण, छुआछूत, जातिवाद तथा स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों के चित्र उपस्थित करते, जिसके परिणाम-स्वरूप इन बुराइयों के खिलाफ मेरे दिल में घृणा और क्रोध पैदा हुआ। मैं एक ऐसे नायक के रूप में अपनी कल्पना करने लगा, जिसने देश से सारे अन्याय और शोषण को मिटा दिया हो, जिसकी पूजा देश की कोटि-कोटि जनता करती हो और जिसकी वीरता और त्याग से प्रभावित होकर कोई अत्यधिक सुन्दर, शिक्षित और शरीफ लड़की अपनी समस्त शक्ति से मुझे प्यार करने लगी हो। नवीं कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते मैंने अपने अन्दर एक हल्का उद्वेग और कुनमुनाहट महसूस करना शुरू कर दी थी। प्रायः काल की असीम स्वच्छता से हृदय एक अपूर्व उत्साह और पवित्रता से भर जाता और रात्रि की कालिमा एक मीठी टीस, बेकली और उदासी उत्पन्न कर देती। मैं चाहने लगा था कि मेरे जीवन में कोई घटना घटे।
मेरे दोस्त मुझसे कम न थे। सबसे बड़ा था मनोहर। उसकी उम्र मुझसे दो वर्ष अधिक होगी। नाटा, दुबला-पतला और कुबड़े की तरह झुका हुआ, जब चलता तो नितम्ब के नीचे उसकी टाँगे। त्रिभुज की दो रेखाओं की भाँति फैल जातीं, पैर के पंजे गधे के कानों की तरह दो दिशाओं को संकेत करते और एड़ियाँ अपेक्षाकृत पास-पा गिरतीं। बोलता तो मुँह से गाज निकलता। पढ़ने-लिखने में बुरा नहीं था, और दुनिया के किसी विषय के सम्बन्ध में उसको कुछ न मालूम हो, ऐसा मैने कभी नहीं पाया।
राजा बलि या बाल्मीकि के मान पर बसे हुए अपने इस कस्बे की स्थिति सन् ’43 में कुछ विचित्र ही थी। आज वहाँ कुछ तरक्की हुई है। वहाँ के छात्र और नवयुवक पैण्ट-कमीज पहनकर बुद्धिमान और आधुनिक नायक की व्यस्तता से झूम-झूमकर चलते हैं और अपने व्यक्तित्व के उत्थान के लिए लड़कियों का पीछा करना आवश्यक समझते हैं। किन्तु, तब ऐसे लोग गधे के सिर से सींग की तरह गायब थे।
उस समय हमारा शहर और जिला आज से कहीं अधिक पिछड़ा भावुक और अकड़ू था। वहाँ के लोग, विशेषकर छात्र और नवयुवक, शहरीपन, फैशन और सुन्दरता के प्रति अनोखी घृणा और सन्देह का भाव रखते थे। दोस्त के लिए जान देने के गुण की कद्र थी, लेकिन कोई फैशन परस्त या सुन्दर लड़का ऐसा कर सकेगा, इस पर सन्देह ही किया जाता। कम उम्र के सुन्दर लड़के आसानी से डरपोक और जनखे समझ लिये जाते, इसलिए अपने को लांछन और व्यंग्य से मुक्त रखने के लिए ऐसे लड़के भरकस नेकर न पहनते; कभी पहनते भी तो ऊपर से कमीज गिरा लेते। किसी में सहसा और सदाचरण हो, इसके लिए यह जरूरी था कि वह देहाती किस्म के कपड़े पहन, जूतों से दूर रहे, बालो, और बोलते समय अपनी आवाज को इस तरह खींचे कि वह शहर का और न किसी कस्बे का रहनेवाला, बल्कि जिले के भीतर-से-भीतरी लट्ठमार देहाती क्षेत्र का रहने वाला मालूम हो।
बहादुरी और मर्दानगी उनके सर्वोत्तम आभूषणों थे; और इसका सबसे बड़ा सबूत यह था कि साल-भर वे असंख्य दल और गुट बनाकर मार-पीट करते। लण्ठई फैशन की तरह फैल गयी थी। लण्ठ बनने की तमन्ना लगभल सबको होती, और ऐसे लोग अपनी उम्र, बुद्धि, शक्ति तथा अन्य सीमाओं के अनुरूप दलबन्दी और मारपीट करके अपने हृदय की प्यास बुझाया करते।
जुलाई में, बरसात प्रारम्भ होते ही, स्कूल-कालेज खुलते थे; और जिस तरह बरसात में किस्म-किस्म के जंगली घास-पौधे, कीड़े-मकौड़े और फरफतिंगे पैदा हो जाते हैं, उसी तरह स्कूल खुलने पर असंख्य दल बन जाते। पिछले वर्ष के झगड़े ही वैसे कम न थे; स्कूल खुलने पर वे ताजे हो जाते। इसके अलावा बहुत-से-नये झगड़े आरम्भ हो जाते। नाजुक लड़कों को लेकर बहुत-से-झगड़े ही, पर कोई अकड़कर चले या ऐठंकर बोल दे या हल्का-फुल्का मजाक कर दे तो वह भी यथेष्ट होता। दोनों ओर दल बन जाते, अकेले में घेरकर पीटने की कार्रवाइयाँ शुरु हो जातीं, किताबें छीन ली जातीं, अँगुलियाँ तोड़ दी जातीं, पैर बेकार कर दिये जाते। शत्रु परीक्षा दें या परिक्षा देकर आनन्दपूर्वक घर चले जायें, यह असहनीय था। इसलिए कोशिश यही रहती कि उनको घेरकर उनके दाहिने हाथ के अँगूठे तोड़ दिये जायें, जिससे वे परीक्षा दे ही न सकें। इस कार्य में असफल होने पर परीक्षा के अन्तिम दिन स्कूलों के फाटकों पर बड़े-बड़े गोल लाठी, हाकी-स्टिक, लकड़ी के चैलों, बेतों, लोहे की छड़ों आदि से लैस होकर एकत्रित हो जाते कि दुश्मनों के बाहर निकलने पर जमकर हो या उनके अंग-भंग कर दिये जायें।
उस समय मैं नवीं कक्षा में पहुँचा था। लड़कपन मेरा विस्मयजनक शान्ति से बीत गया था।
साँवला, खूबसूरत, चंचल, शर्मीला और खिलाड़ी-स्कूली तथा शहरी लण्ठों की बदतमीजियों और शरारतों से बचने के लिए मैं अधिकतर घर ही पर बना रहता, और खेल-कूद के नाम पर भाइयों से गाली-गलौज और मारपीट करके सन्तोष कर लेता। स्कूल जाता, घर आता और बस। मेरे आचरण के विरुद्ध किसी प्रकार का लांछन मुझे बरदाश्त नहीं था। इससे सम्भवतः लाभ हानि, दोनों हुए। लाभ यह कि जो समय मैं लेखने –कूदने में बिताता, उसमें पढ़ने-लिखने लगा, जिससे मेरी गणना तेज विद्यार्थियों में होने लगी; हानि यह कि सुन्दर और स्वस्थ शरीर से मैं वंचित रह गया। लगता है अपने छोटेपन की घुटन की क्षतिपूर्ण एक अन्य वस्तु से भी हुई।
मेरे पिताजी उपन्यास पढ़ने के शौकीन थे। ‘चलता पुस्तकालय’ के विशेष सदस्य होने के नाते प्रति सप्ताह उनके पास दो पुस्तकें पहुँचा दी जातीं। मैं उन पुस्तकों को चोरी-छिपे पढ़ता। बारह-तेरह से अठ्ठारह वर्ष की उम्र तक मैंने ढेरों उपन्यास पढ़ डाले, जिनमें कुछ तो बहुत ही अच्छे थे और कुछ बहुत घटिया। निस्सन्देह, वे अपने-अपने विशेष तरीके से समाज में व्याप्त अमानता, अन्याय, शोषण, छुआछूत, जातिवाद तथा स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों के चित्र उपस्थित करते, जिसके परिणाम-स्वरूप इन बुराइयों के खिलाफ मेरे दिल में घृणा और क्रोध पैदा हुआ। मैं एक ऐसे नायक के रूप में अपनी कल्पना करने लगा, जिसने देश से सारे अन्याय और शोषण को मिटा दिया हो, जिसकी पूजा देश की कोटि-कोटि जनता करती हो और जिसकी वीरता और त्याग से प्रभावित होकर कोई अत्यधिक सुन्दर, शिक्षित और शरीफ लड़की अपनी समस्त शक्ति से मुझे प्यार करने लगी हो। नवीं कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते मैंने अपने अन्दर एक हल्का उद्वेग और कुनमुनाहट महसूस करना शुरू कर दी थी। प्रायः काल की असीम स्वच्छता से हृदय एक अपूर्व उत्साह और पवित्रता से भर जाता और रात्रि की कालिमा एक मीठी टीस, बेकली और उदासी उत्पन्न कर देती। मैं चाहने लगा था कि मेरे जीवन में कोई घटना घटे।
मेरे दोस्त मुझसे कम न थे। सबसे बड़ा था मनोहर। उसकी उम्र मुझसे दो वर्ष अधिक होगी। नाटा, दुबला-पतला और कुबड़े की तरह झुका हुआ, जब चलता तो नितम्ब के नीचे उसकी टाँगे। त्रिभुज की दो रेखाओं की भाँति फैल जातीं, पैर के पंजे गधे के कानों की तरह दो दिशाओं को संकेत करते और एड़ियाँ अपेक्षाकृत पास-पा गिरतीं। बोलता तो मुँह से गाज निकलता। पढ़ने-लिखने में बुरा नहीं था, और दुनिया के किसी विषय के सम्बन्ध में उसको कुछ न मालूम हो, ऐसा मैने कभी नहीं पाया।
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